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नज़्म
ये किस तरह याद आ रही हो ये ख़्वाब कैसा दिखा रही हो
कि जैसे सच-मुच निगाह के सामने खड़ी मुस्कुरा रही हो
कैफ़ी आज़मी
नज़्म
ख़फ़ा जब ज़िंदगी हो तो वो आ के थाम लेते हैं
रुला देती है जब दुनिया तो आ कर मुस्कुराते हैं
इरफ़ान अहमद मीर
नज़्म
कभी मुस्कुराते हुए शोर करते हुए फिर गले से लिपट कर करो ऐसी बातें
हमें सरसराती हवा याद आए
मीराजी
नज़्म
मुस्कुराते हुए किरदार थे मिर्ज़ा 'ग़ालिब'
मादर-ए-हिन्द के फ़नकार थे मिर्ज़ा 'ग़ालिब'