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नज़्म
जो है इक नंग-ए-हस्ती उस को तुम क्या जान भी लोगे
अगर तुम देख लो मुझ को तो क्या पहचान भी लोगे
जौन एलिया
नज़्म
सिला था तेरी रियाज़त का सुब्ह-ए-आज़ादी
वो सुब्ह जिस को ग़ुलामों ने नंग-ए-शाम किया
रविश सिद्दीक़ी
नज़्म
नंग-ए-हस्ती सर पे इक औहाम की पस्ती का ताज
मुफ़लिसों से जो लिया करती है गिन गिन कर ख़िराज
मयकश अकबराबादी
नज़्म
चमन का हुस्न तो हर रंग के फूलों से है 'राशिद'
कोई भी फूल क्यूँ नंग-ए-चमन है हम नहीं समझे
राशिद बनारसी
नज़्म
ये नहीं तो फ़ख़्र इस तहज़ीब पर बे-कार है
नंग-ए-इंसाँ ये तमद्दुन मौजिब-ए-सद-आर है