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नज़्म
सफ़ीर-ए-लैला यही खंडर हैं जहाँ से आग़ाज़-ए-दास्ताँ है
ज़रा सा बैठो तो मैं सुनाऊँ
अली अकबर नातिक़
नज़्म
हमें भी रो ले हुजूम-ए-गिर्या कि फिर न आएँगे ग़म के मौसम
हमें भी रो ले कि हम वही हैं
अली अकबर नातिक़
नज़्म
वो इक मुसाफ़िर था जा चुका है
बता गया था कि बे-यक़ीनों की बस्तियों में कभी न रहना
अली अकबर नातिक़
नज़्म
अली अकबर नातिक़
नज़्म
नज़र उठाओ सफ़ीर-ए-लैला बुरे तमाशों का शहर देखो
ये मेरा क़र्या ये वहशतों का अमीन क़र्या
अली अकबर नातिक़
नज़्म
जिस वक़्त महार उठाई थी मेरा ऊँट भी प्यासा था
मश्कीज़े में ख़ून भरा था आँख में सहरा फैला था
अली अकबर नातिक़
नज़्म
आग बराबर फेंक रहा था सूरज धरती वालों पर
तपती ज़मीं पर लू के बगूले ख़ाक उड़ाते फिरते थे