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नज़्म
मैं ने ससुराल में हर शख़्स की इज़्ज़त की है
सास ससुरे नहीं ननदों की भी ख़िदमत की है
नश्तर अमरोहवी
नज़्म
कभी है सास का रोना कभी ननदों से है झगड़ा
ज़बाँ है इन की ''दो-धारी'' जो पहले थी सो अब भी है
नज़र बर्नी
नज़्म
न तुम मेरी तरफ़ देखो ग़लत-अंदाज़ नज़रों से
न मेरे दिल की धड़कन लड़खड़ाए मेरी बातों से
साहिर लुधियानवी
नज़्म
वो इक अंदोह था तारीख़ का अंदोह-ए-सोज़िंदा
वो नामों का दरख़्त-ए-ज़र्द था और उस की शाख़ों को