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नज़्म
क़रार-ए-ख़ातिर-ए-आशुफ़्ता है फ़ज़ा उस की
निशान-ए-मंज़िल-ए-सिद्क़-ओ-सफ़ा सुदेशी है
तिलोकचंद महरूम
नज़्म
थी हर इक जुम्बिश निशान-ए-लुत्फ़-ए-जाँ मेरे लिए
हर्फ़-ए-बे-मतलब थी ख़ुद मेरी ज़बाँ मेरे लिए
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
निशान-ए-'मीर'-ओ-'ग़ालिब', 'दाग़' और 'साइल' अभी तक हैं
जो शमएँ बच गई हैं रौनक़-ए-महफ़िल अभी तक हैं