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नज़्म
उड़ गया दुनिया से तू मानिंद-ए-ख़ाक-ए-रह-गुज़र
ता-ख़िलाफ़त की बिना दुनिया में हो फिर उस्तुवार
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
क़दम क़दम पे दे उठी है लौ ज़मीन-ए-रह-गुज़र
अदा अदा में बे-शुमार बिजलियाँ लिए हुए
फ़िराक़ गोरखपुरी
नज़्म
न पूछ 'इक़बाल' का ठिकाना अभी वही कैफ़ियत है उस की
कहीं सर-ए-राहगुज़ार बैठा सितम-कश-ए-इंतिज़ार होगा
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
गुबार-ए-रहगुज़ार-ए-दहर में आलूदगी कब तक
मिरे ज़र्रीं तसव्वुर को बिसात-ए-कहकशाँ दे दे