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नज़्म
अबद के दश्त में जो क़तरा-ए-वक़्त-ए-रवाँ गुम हो
उसे पहनाइयों में एक बहर-ए-बे-कराँ समझो
नईम सिद्दीक़ी
नज़्म
कभी तख़्ईल की पहनाइयों में गुम सा फिरता है
कभी कौन-ओ-मकाँ की वुसअ'तों में डूब जाता है
कमाल हैदराबादी
नज़्म
उस सियासी रथ के पहियों पर जमाए है नज़र
जिस में आ जाती है तेज़ी खेतियों को रौंद कर