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नज़्म
अँधेरी रात में जब मुस्कुरा उठते हैं सय्यारे
तरन्नुम फूट पड़ता है मिरे साज़-ए-रग-ए-जाँ से
शातिर हकीमी
नज़्म
पिया है ज़िंदगी-भर ख़ून-ए-रग-ए-जाँ का
बरहना बात कहने पर भी मुझ को इस तरह उर्यां नहीं करती
क़य्यूम नज़र
नज़्म
ऐ मतवालो नाक़ों वालो! नगरी नगरी जाते हो
कहीं जो उस की जान का बैरी मिल जाए ये बात कहो
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
कैसे कैसे अक़्ल को दे कर दिलासे जान-ए-जाँ
रूह को तस्कीन दी है दिल को समझाया भी है