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नज़्म
सीने पे कैसा बोझ है होता नहीं सुबुक
होंटों के ज़ावियों में फँसा है ''ख़ुदा...ख़ुदा''
राजेन्द्र मनचंदा बानी
नज़्म
बंद दरवाज़े के पल्लों में फँसा देता है
और ख़त देख के इक इश्क़ में पाबंद नज़र
विनोद कुमार त्रिपाठी बशर
नज़्म
'आफ़्ताब' आज फँसा जाता है फिर ताइर-ए-दिल
हाए अफ़्सोस कि सय्याद का जाल अच्छा है