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नज़्म
मैं ने जो ज़ुल्म कभी तुझ से रवा रक्खा था
आज उसी ज़ुल्म के फंदे में गिरफ़्तार हूँ मैं
क़तील शिफ़ाई
नज़्म
कभी उस जब्र-ए-बे-अंदाज़ के फंदे से निकलो
और रचो उस में कि वो ख़ुद तुम में रचने के लिए बेताब दाइम है
किश्वर नाहीद
नज़्म
दिल-ए-बरगश्ता को लेकिन ये मैं ने बात समझाई
''नहीं कुछ सुब्हा-ओ-ज़ुन्नार के फंदे मैं गीराई''