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नज़्म
सिर्फ़ अदब के ग़म में ग़लताँ चलने फिरने से लाचार
चेहरों से ज़ाहिर होता है जैसे बरसों के बीमार
हबीब जालिब
नज़्म
इक निगार-ए-नाज़ की फिरने लगीं आँखें 'मजाज़'
इक बुत-ए-काफ़िर का दिल दर्द-आश्ना होने लगा
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
परिंदे ख़ुद चला कर गाड़ियाँ जाएँ जहाँ चाहें
और हाथी उड़ते फिरने को बड़ा सा पँख लगवाएँ
सफ़दर अली सफ़दर
नज़्म
तू नहीं वाक़िफ़ कि मैं घूमा फिरा हूँ किस क़दर
कितने जंगल मैं ने झाँके कितनी देखीं बस्तियाँ