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नज़्म
जब माह अघन का ढलता हो तब देख बहारें जाड़े की
और हँस हँस पूस सँभलता हो तब देख बहारें जाड़े की
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
इक सूरज है जो शाम-ढले मुझे पुरसा देने आता है
उन फूलों का जो मेरे लहू में खिलने थे और खिले नहीं
इफ़्तिख़ार आरिफ़
नज़्म
हुस्न को पुर्सिश-ए-बीमार का है अब भी ख़याल
मेहर की ज़र्रा ख़ाकी पे नज़र है कि नहीं
जोश मलीहाबादी
नज़्म
इक इक अदा में सैकड़ों पहलू-ए-दिलदही
इक इक नज़र में पुर्सिश-ए-पिन्हाँ लिए हुए
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
पुर्सिश-ए-ग़म पर भी कह सकना न अपने जी का हाल
कुछ कहा तो बस यही कि तुम पे कुछ बीती नहीं