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नज़्म
इक जनाज़े को उठाए जा रहे थे चंद लोग
तुम ने पूछा क्या हुआ क्यूँ जा रहे हो तुम मलूल
मयकश अकबराबादी
नज़्म
एक शब तो तब’-ए-मौज़ूँ ने उड़ा दी नींद भी
और दिमाग़ ओ क़ल्ब की रग रग फड़कने लग गई
बर्क़ आशियान्वी
नज़्म
कुछ ऐसे रूप में आया है फ़ित्ना-ए-हाज़िर
तमीज़-ए-दोस्ताँ ओ दुश्मनाँ भी मुश्किल है
मौलवी सय्यद मुमताज़ अली
नज़्म
ये अक़ीदा हिंदुओं का है निहायत ही क़दीम
जब कभी मज़हब की हालत होती है ज़ार-ओ-सक़ीम
जगत मोहन लाल रवाँ
नज़्म
इक दुनिया को तड़पाती हैं जाना न अदाएँ भारत की
पर दिल पर चोट लगाती हैं पुर-दर्द सदाएँ भारत की
मोहम्मद शफ़ीउद्दीन नय्यर
नज़्म
हाँ ऐ मसाफ़-ए-हस्ती! मत पूछ मुझ से क्या हूँ
इक अर्सा-ए-बला हूँ इक लुक़मा-ए-फ़ना हूँ
ग़ुलाम भीक नैरंग
नज़्म
कहीं अंजान साहिल पर कहीं सुनसान राहों में
ढले हैं क़हक़हे मेरे 'सफ़ी' जब सर्द आहों में
अफ़ज़ल सफ़ी
नज़्म
गुल हुई जाती है अफ़्सुर्दा सुलगती हुई शाम
धुल के निकलेगी अभी चश्मा-ए-महताब से रात