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नज़्म
हज़ारों क़र्ज़ थे मुझ पर तुम्हारी उल्फ़त के
मुझे वो क़र्ज़ चुकाने का मौक़ा तो देते
ज़ुबैर अली ताबिश
नज़्म
झड़ कर रही हैं झड़ियाँ नाले उमँड रहे हैं
बरसे है मुँह झड़ा झड़ बादल घुमंड रहे हैं
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
मैं अपने हर शौक़ को फिर से ज़िंदा कर के उन को पूरा करने का भी सोच रहा हूँ
अब मैं अकेला नहीं रहा हूँ
बालमोहन पांडेय
नज़्म
लगा कर जो वतन को दाव पर कुर्सी बचाते हैं
भुना कर खोटे सिक्के धर्म के जो पुन कमाते हैं
कैफ़ी आज़मी
नज़्म
मुसलमाँ क़र्ज़ ले कर ईद का सामाँ ख़रीदेंगे
जो दाना हैं वो बेचेंगे जो हैं नादाँ ख़रीदेंगे