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नज़्म
गुल से अपनी निस्बत-ए-देरीना की खा कर क़सम
अहल-ए-दिल को इश्क़ के अंदाज़ समझाने लगीं
सय्यदा शान-ए-मेराज
नज़्म
क़तार-दर-क़तार सिंफ़-हा-ए-ख़ल्क़ देखती हुई
क़ज़ा भी ठहर कर नज़र बचा के देखने लगी
अब्दुल्लाह साक़िब
नज़्म
जिसे अपनी सुहुलत के लिए दुनिया... ये तन-आसान दुनिया... इक मुरव्वत में
हुजूम-ए-ख़ल्क़ कहती है
अब्बास ताबिश
नज़्म
उन ज़ईफ़ों के सहारे को असा बन जाऊँ
ख़िदमत-ए-ख़ल्क़ का हर सम्त में चर्चा कर दूँ
हामिदुल्लाह अफ़सर
नज़्म
फ़साद-ए-ख़ल्क़ भी ख़ुद और फ़साद-ए-ज़ात भी ख़ुद
सफ़र का वक़्त भी ख़ुद जंगलों की रात भी ख़ुद