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नज़्म
न दरख़्तों से किसी शाख़ के गिरने की सदा गूँजेगी
फड़फड़ाहट किसी ज़ंबूर की भी कम ही सुनाई देगी
नून मीम राशिद
नज़्म
मैं अक्सर देखने जाता था उस को जिस की माँ मरती
और अपने दिल में कहता था ये कैसा शख़्स? है अब भी
ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर
नज़्म
परतव रोहिला
नज़्म
सारे ख़्वाबों का गला घूँट दिया है मैं ने
अब न लहकेगी किसी शाख़ पे फूलों की हिना