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नज़्म
निशान-ए-बर्ग-ए-गुल तक भी न छोड़ उस बाग़ में गुलचीं
तिरी क़िस्मत से रज़्म-आराइयाँ हैं बाग़बानों में
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
मयस्सर है हमें आज़ादी-ए-सैर-ए-चमन लेकिन
'रज़ी' हर वक़्त फ़िक्र-ए-आशियाँ कुछ और कहती है
रज़ी बदायुनी
नज़्म
आओ अपने दिल में दर्द-ए-ला-दवा पैदा करें
शिद्दत-ए-ग़म में मसर्रत का मज़ा पैदा करें