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नज़्म
तिरा जिस्म इक हुजूम-ए-रेशम-ओ-कम-ख़्वाब है सलमा
शबिस्तान-ए-जवानी का तू इक ज़िंदा सितारा है
नय्यर वास्ती
नज़्म
मुझे इक़रार है उस ने ज़मीं को ऐसे फैलाया
कि जैसे बिस्तर-ए-कम-ख़्वाब हो दीबा-ओ-मख़मल हो
अख़्तरुल ईमान
नज़्म
ये हसीं अतलस-ओ-कम-ख़्वाब बुने हैं मैं ने
मेरे हिस्से में मगर दूर का जल्वा ही रहा
राही मासूम रज़ा
नज़्म
सर्द रातों का हसीं इक ख़्वाब है चेहरा तिरा
क्या कहूँ बस मंज़र-ए-नायाब है चेहरा तिरा