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नज़्म
नज़र को ख़ीरा करती है चमक तहज़ीब-ए-हाज़िर की
ये सन्नाई मगर झूटे निगूँ की रेज़ा-कारी है
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
जज़्ब होंगे अभी इस ख़ाक-ए-चमन में ऐ दोस्त
अश्क बन बन के गुहर-रेज़ा-ए-शबनम कितने
जाँ निसार अख़्तर
नज़्म
चमकती बर्फ़ की सूरत पिघलता है!
अगरचे यूँ पिघलने से ये पत्थर, संग-रेज़ा तो नहीं बनता!
अमजद इस्लाम अमजद
नज़्म
कूचा ओ बाज़ार से फिर चुन के रेज़ा रेज़ा ख़्वाब
हम यूँही पहले की सूरत जोड़ने लग जाएँगे
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
वो ख़ाक हो कि जिस में मिलें रेज़ा-हा-ए-ज़र
वो संग बन कि जिस से निकलते हैं लाल-ए-नाब
सय्यद वहीदुद्दीन सलीम
नज़्म
मेरा एक एक अरमाँ
उछलते समुंदर की सदियों पुरानी चट्टानों से टकरा के यूँ रेज़ा रेज़ा हुआ है