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रोज़-ओ-शबऔर
रोज़-ओ-शबज़बान पर
कूज़ा-गररोज़-ओ-शब
कि जैसेरोज़-ए-अज़ल से
उलझे हुए रोज़ ओ शबकी शनासा लकीरों
तेरा सबूचा गहवारा तिराहर रोज़-ए-रौशन
समंदर मगररोज़-ए-अव्वल से ख़ामोश है
रोज़-ओ-शबहल्क़ा-ए-आफ़ात हैं
अपने रोज़-ए-अव्वल कीशाम ही नहीं होती
वहाँ रोज़-ओ-शब मेंबस इक ख़्वाब है
बहती है रोज़-ओ-शबदिसम्बर चीख़ता है अब
कुछ ख़ास नहीं हैवही रोज़-ओ-शब हैं
फिर वही मा'मूलरोज़-ओ-शब का पहला सिलसिला
रोज़-ए-आइंदा, रोज़-ए-फ़र्दा होएक शाहीन-ए-मावरा से परे
रोज़-ए-अज़ल से जिस परतुम गामज़न रहे हो
भरने को रंग आ गएरोज़-ए-रौशन की मानिंद
रोज़-ए-अव्वल से हैसैकड़ों रहनुमा आए तब्लीग़ की
मिरे रोज़-ओ-शब की अज़िय्यतेंवो नदामतें वो मलामतें
और अबग़ुबार-ए-रोज़-ओ-शब के
या कोई वली?''वो रोज़-ए-अज़ल का दोहराया
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