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नज़्म
ऐ कि ख़्वाबीदा तिरी ख़ाक में शाहाना वक़ार
ऐ कि हर ख़ार तिरा रू-कश-ए-सद-रू-ए-निगार
जोश मलीहाबादी
नज़्म
मजीद अमजद
नज़्म
हया रोके थी अब तक कुछ न उन के रू-ब-रू निकली
बहुत छेड़ा दिल-ए-मुज़्तर को तब ये गुफ़्तुगू निकली
मंझू बेगम लखनवी
नज़्म
क्यूँ ज़ियाँ-कार बनूँ सूद-फ़रामोश रहूँ
फ़िक्र-ए-फ़र्दा न करूँ महव-ए-ग़म-ए-दोश रहूँ