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नज़्म
कैसे कैसे अक़्ल को दे कर दिलासे जान-ए-जाँ
रूह को तस्कीन दी है दिल को समझाया भी है
सय्यदा शान-ए-मेराज
नज़्म
ये साज़ ओ दिल में मिरे नग़्मा-ए-अनलकौनैन
हर इज़्तिराब में रूह-ए-सुकून-ए-बे-पायाँ
फ़िराक़ गोरखपुरी
नज़्म
निगाह-ए-मस्त से उस की बहक जाती थी कुल वादी
हवाएँ पर-फ़िशाँ रूह-ए-मय-ओ-मय-ख़ाना रहती थी
अख़्तर शीरानी
नज़्म
सर्द शाख़ों में हवा चीख़ रही है ऐसे
रूह-ए-तक़्दीस-ओ-वफ़ा मर्सियाँ-ख़्वाँ हो जैसे