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नज़्म
नाज़ुक-मिज़ाज बन कर वो रूठना मचलना
सेहन-ए-मकाँ में दिन भर वो कूदना-उछलना
मिर्ज़ा मोहम्मद हादी अज़ीज़ लखनवी
नज़्म
वही है रूठना इन का वही मैके की है धमकी
वही ज़िल्लत वही ख़्वारी जो पहले थी सो अब भी है
नज़र बर्नी
नज़्म
है शायद मुझ को सारी उम्र उस के सेहर में रहना
मगर मेरे ग़रीब अज्दाद ने भी कुछ किया होगा