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नज़्म
अली अकबर नातिक़
नज़्म
कि मुझ में तुझ में जो मुश्तरक क़दर है वो जंगी सऊबतें हैं
मिरा भी दुश्मन वही है जो तुझ से लड़ रहा है
अदीम हाशमी
नज़्म
ज़िक्र करता हूँ पुरानी सोहबतों का बार बार
और दौर-ए-हाल को माज़ी से ठुकराता हूँ मैं
प्रेम लाल शिफ़ा देहलवी
नज़्म
वो ज़मीन पर आबाद ज़िंदगी की दूसरी सूरतों की क्या पर्वा करेगा
काश उसे फ़ुर्सत होती देखने की