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नज़्म
बढ़ के उस इन्दर सभा का साज़ ओ सामाँ फूँक दूँ
उस का गुलशन फूँक दूँ उस का शबिस्ताँ फूँक दूँ
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
अल्लाह-रे वो तख़य्युल अल्लाह-रे साज़-ओ-सामाँ
दुनिया की सल्तनत थी इस ज़िंदगी पे क़ुर्बां
मिर्ज़ा मोहम्मद हादी अज़ीज़ लखनवी
नज़्म
दाग़ जिन के साज़-ओ-सामाँ दर्द जिन का पासबाँ
क्या इसी दुनिया में तू पलता है ऐ हिन्दोस्ताँ
मयकश अकबराबादी
नज़्म
तुझे हासिल किया था और हर सूरत भुला दी थी
पुराने साज़-ओ-सामाँ अब मुझे रोने को आए हैं
मुस्तफ़ा ज़ैदी
नज़्म
दिल के दाग़ों को समझ लूँ किस तरह गुलहा-ए-तर
ग़म से कैसे साज़-ओ-सामान-ए-ख़ुशी पैदा करूँ
जगदीश सहाय सक्सेना
नज़्म
साज़-ओ-सामान-ए-तरब सब कुछ तिरी महफ़िल में है
दर्द-ए-इंसानी का भी जल्वा किसी के दिल में है
ज़फ़र अहमद सिद्दीक़ी
नज़्म
क़ुमरियाँ मीठे सुरों के साज़ ले कर आ गईं
बुलबुलें मिल-जुल के आज़ादी के गुन गाने लगीं