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नज़्म
मयस्सर है हमें आज़ादी-ए-सैर-ए-चमन लेकिन
'रज़ी' हर वक़्त फ़िक्र-ए-आशियाँ कुछ और कहती है
रज़ी बदायुनी
नज़्म
सब्र से शुक्र-ओ-रज़ा के बंद हुजरों में बंधा
बैठा रहा और हल्क़ में जब प्यास के काँटे चुभे तो