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नज़्म
चार शख़्स आपस में थे इक रोज़ मसरूफ़-ए-नमाज़
बोल उठा उन में से ना-गहाँ एक मर्द-ए-हीला-बाज़
मोहम्मद अबदुल वहाब
नज़्म
बयाज़-ए-दिल को जो खोलें तो जुस्तुजू होगी
हर एक सफ़्हा-ए-हस्ती की गुफ़्तुगू होगी