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नज़्म
तेरा ग़म है तो ग़म-ए-दहर का झगड़ा क्या है
तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
में ख़ुद को उन के दस्तर-ख़्वानों पर मौजूद पाता था
सकत बाक़ी नहीं है उन लबों में आज इतनी भी
ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर
नज़्म
और दरियाओं को राह-ए-बर्फ़ में तब्दील होते भी न देखा
तजरबे मिट्टी के लोंदे गोल चिकने और सपाट
अमीक़ हनफ़ी
नज़्म
अब भी जल्वों में है तख़्लीक़-ए-मोहब्बत की सकत
तिरी बातों में अभी तक है फ़ुसूँ का अंदाज़