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नज़्म
कहाँ हैं वो कि जो ख़ुद को ख़ुदा समझते हैं
वो जो कि अम्न-ओ-अमाँ के फ़साने कहते हैं
शिफ़ा कजगावन्वी
नज़्म
समझ लेना कोई रो रो के तुझ को याद करता है
समझ लेना कोई ग़म का जहाँ आबाद करता है
राजेन्द्र नाथ रहबर
नज़्म
फिर इक दिन उन की क़िस्मत में लिखी जाती है रुस्वाई
ज़माने में समझते हैं जो कारोबार औरत को