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नज़्म
अकबर इलाहाबादी
नज़्म
कम-सिन हैं बे-ख़बर हैं उठती जवानियाँ हैं
क्या समझें ग़म के हाथों क्यूँ सर-गिरानियाँ हैं
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
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कम-सिन हैं बे-ख़बर हैं उठती जवानियाँ हैं
क्या समझें ग़म के हाथों क्यूँ सर-गिरानियाँ हैं
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