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नज़्म
तिरा ये रिंद-ए-सर-गश्ता जिसे 'फ़ारूक़' कहते हैं
इसी तन्क़ीद के चलते बहुत बदनाम है साक़ी
शमीम फ़ारूक़ बांस पारी
नज़्म
बहर-ए-तूफ़ानी-ए-दुनिया में हैं हम सर-गश्ता
मौज-ए-ग़म में है जहाज़ अपना थिएटर खाता
सूरज नारायण मेहर
नज़्म
देखना जज़्ब-ए-मोहब्बत का असर आज की रात
मेरे शाने पे है उस शोख़ का सर आज की रात
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
सर-निगूँ बंद दरीचों में उम्मीदों के दिए गुल कर दो
दास्ताँ सोज़-ओ-मोहब्बत की अधूरी है
ज़ाहिदा ज़ैदी
नज़्म
आज होती है नए सर से वफ़ा की तज्दीद
ये मिलन ईद का है क़ुफ़्ल-ए-मोहब्बत की कलीद
रंगेशवर दयाल सक्सेना सूफ़ी
नज़्म
गर तमन्ना है कि हो सारा ज़माना अपना
जज़्बा-ए-इश्क़-ओ-मुहब्बत की नज़र पैदा कर