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नज़्म
अली सरदार जाफ़री
नज़्म
अब तो खा बैठे हैं चित्तौड़ के गढ़ की क़स्में
सरफ़रोशी की अदा होती हैं यूँ ही रस्में
राम प्रसाद बिस्मिल
नज़्म
अभी ख़ुद सरफ़रोशान-ए-वतन के गीत गाना है
मुझे जाना है इक दिन तेरी बज़्म-ए-नाज़ से आख़िर
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
क्या अहल-ए-दिल में जज़्बा-ए-ग़ैरत नहीं रहा
क्या अज़्म-ए-सर-फ़रोशी-ए-मर्दां चला गया
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
जाते जाते लेकिन इक पैमाँ किए जाता हूँ मैं
अपने अज़्म-ए-सरफ़रोशी की क़सम खाता हूँ मैं
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
हम-संग जवाहिर कभी पत्थर नहीं होता
हर चंद तराशे कोई सन्ना-ए-सफ़ा-कोश
मिर्ज़ा मोहम्मद हादी अज़ीज़ लखनवी
नज़्म
सरफ़रोशों की तरह पहले मिटा दे ख़ुद को
हिन्द की ख़ाक से फिर लाल-ओ-गुहर पैदा कर