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नज़्म
बनाम-ए-इल्म-ओ-अदब जो पाया
अबदुल्लाह-इब्न-ए-उबय की दौलत अबू-जहल की वो ख़ासियत है
अबु बक्र अब्बाद
नज़्म
इल्म जो शहर-ए-इल्म के बाहर अब भी गिर्या करता है
अपनी और तेरी हालत पर ग़म के आँसू रोता है
अबु बक्र अब्बाद
नज़्म
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
वो इल्म में अफ़लातून सुने वो शेर में तुलसीदास हुए
वो तीस बरस के होते हैं वो बी-ए एम-ए पास हुए
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
उजड़ी मंडी, लाग़र कुत्ते, टूटे खम्बे ख़ाली खेत
क्या इस नहर के पुल के आगे ऐसा शहर-ए-ख़मोशाँ था
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
बे-तेरे क्या वहशत हम को, तुझ बिन कैसा सब्र ओ सुकूँ
तू ही अपना शहर है जानी तू ही अपना सहरा है
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
मैं अपने शहर-ए-इल्म-ओ-फ़न का था इक नौजवाँ काहिन
मिरे तिल्मीज़-ए-इल्म-ओ-फ़न मिरे बाबा के थे हम-सिन
जौन एलिया
नज़्म
कौन होता है हरीफ़-ए-मय-ए-मर्द-अफ़्गन-ए-इल्म
किस के सर जाएगा अब बार-ए-गिरान-ए-उर्दू