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नज़्म
तुम्हारी सुब्ह जाने किन ख़यालों से नहाती हो
तुम्हारी शाम जाने किन मलालों से निभाती हो
जौन एलिया
नज़्म
गुमाँ-आबाद हस्ती में यक़ीं मर्द-ए-मुसलमाँ का
बयाबाँ की शब-ए-तारीक में क़िंदील-ए-रुहबानी
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
न सहबा हूँ न साक़ी हूँ न मस्ती हूँ न पैमाना
मैं इस मय-ख़ाना-ए-हस्ती में हर शय की हक़ीक़त हूँ
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
नग़्मा-ए-बुलबुल हो या आवाज़-ए-ख़ामोश-ए-ज़मीर
है इसी ज़ंजीर-ए-आलम-गीर में हर शय असीर
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
दीद तेरी आँख को उस हुस्न की मंज़ूर है
बन के सोज़-ए-ज़िंदगी हर शय में जो मस्तूर है
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
वो दौर भी था जब दुनिया की हर शय पे जवानी छाई थी
ख़्वाबों की नशीली बद-मस्ती मासूम दिलों पर छाई थी