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नज़्म
दो शम्ओं' की लौ पेचाँ जैसे इक शो'ला-ए-नौ बन जाने की
दो धारें जैसे मदिरा की भरती हुइ किसी पैमाने की
जाँ निसार अख़्तर
नज़्म
ऐ मतवालो नाक़ों वालो! नगरी नगरी जाते हो
कहीं जो उस की जान का बैरी मिल जाए ये बात कहो
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
कैसे कैसे अक़्ल को दे कर दिलासे जान-ए-जाँ
रूह को तस्कीन दी है दिल को समझाया भी है
सय्यदा शान-ए-मेराज
नज़्म
शजर-ए-फ़ितरत-ए-मुस्लिम था हया से नमनाक
था शुजाअत में वो इक हस्ती-ए-फ़ोक़-उल-इदराक