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नज़्म
मैं ख़ुद में झेंकता हूँ और सीने में भड़कता हूँ
मिरे अंदर जो है इक शख़्स मैं उस में फड़कता हूँ
जौन एलिया
नज़्म
हबीब जालिब
नज़्म
उस रोज़ हमें मालूम हुआ उस शख़्स का मुश्किल समझाना
इस बस्ती के इक कूचे में इक 'इंशा' नाम का दीवाना
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
मेरे कान में ये नवा-ए-हज़ीं यूँ थी जैसे
किसी डूबते शख़्स को ज़ेर-ऐ-गिर्दाब कोई पुकारे!
नून मीम राशिद
नज़्म
मैं ने ससुराल में हर शख़्स की इज़्ज़त की है
सास ससुरे नहीं ननदों की भी ख़िदमत की है
नश्तर अमरोहवी
नज़्म
सिपाह-ए-महर का फ़सील-ए-शब को इंतिज़ार है
कब आएगा वो शख़्स जिस का सब को इंतिज़ार है