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नज़्म
क्या बुग़चे ताश मोशज्जर के क्या तख़्ते शाल दोशालों के
सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
ये कैसी लज़्ज़त से जिस्म शल हो रहा है मेरा
ये क्या मज़ा है कि जिस से है उज़्व उज़्व बोझल
फ़हमीदा रियाज़
नज़्म
पोशाकें नाज़ुक रंगों की और ओढ़े शाल दो-शाले हों
कुछ नाच और रंग की धूमें हों ऐश में हम मतवाले हों
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
बड़े शहर की चाह में, जाने कैसे कैसे गुनाह किए
यहाँ तक कि आँखें हमारी पथरा गईं, पाँव हमारे शल हुए