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नज़्म
सब गलियों में तरनजन थे और हर तरनजन में सखियाँ थीं
सब के जी में आने वाली कल का शौक़-ए-फ़रावाँ था
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
देर तक हम नए आदमी के रहे मुंतज़िर
देर तक शौक़-ए-दीदार की अपनी आँखों में मस्ती रही
ख़लील-उर-रहमान आज़मी
नज़्म
देर तक हम नए आदमी के रहे मुंतज़िर
देर तक शौक़-ए-दीदार की अपनी आँखों में मस्ती रही
ख़लील-उर-रहमान आज़मी
नज़्म
ये कस दयार-ए-अदम में मुक़ीम हैं हम तुम
जहाँ पे मुज़्दा-ए-दीदार-ए-हुस्न-ए-यार तो क्या