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नज़्म
हर इक शीशा-ए-पाक-बाज़-ओ-सफ़ा की समावी रगों में
किसी अक्स-ए-फ़ाजिर की मिट्टी भरी है
रफ़ीक़ संदेलवी
नज़्म
आँख खुली तो आँख में रंग-ए-बहार भर दिया
शीशा-ए-पाक-ओ-साफ़ में ले के ग़ुबार भर दिया