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नज़्म
वक़्त के हर नक़्श का मौत ही अंजाम है
हैं इसी क़ानून में जकड़े हुए शैख़-ओ-शाब
ज़फ़र अहमद सिद्दीक़ी
नज़्म
पेश-रौ शाही थी फिर हिज़-हाईनेस फिर अहल-ए-जाह
बअ'द इस के शैख़ साहब उन के पीछे ख़ाकसार
अकबर इलाहाबादी
नज़्म
शैख़-साहिब! सच तो ये है उन दिनों पीता था मैं
उन दिनों पीता था यानी जिन दिनों जीता था में
हफ़ीज़ जालंधरी
नज़्म
पूछता 'फ़ारूक़' शैख़-ए-मदरसा मिलता अगर
बंद क्या हर साहब-ए-दस्तार के होते हैं कान