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नज़्म
चले हैं बहर-ए-मय-कशी शुयूख़ भी रवाँ-दवाँ
ज़बान-ए-बर्ग-ए-गुल पे है ये नारा-ए-तरब-निशाँ
अर्श मलसियानी
नज़्म
ये क़बीलों के शुयूख़-ए-पुख़्ता-उम्र ओ सख़्त-कोश
वादी-ए-दजला के शहरी कुर्द के ख़ाना-ब-दोश
क़मर जमील
नज़्म
गुलू में तेरी उल्फ़त के तराने सूख जाएँगे
मबादा याद-हा-ए-अहद-ए-माज़ी महव हो जाएँ
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
सब्ज़ा सब्ज़ा सूख रही है फीकी ज़र्द दोपहर
दीवारों को चाट रहा है तन्हाई का ज़हर
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
जिस तरह सूख के ज़ख़्मों से गिरा करती है पपड़ी
उस की दीवारों से इस तरह से गिरता है प्लस्तर
गुलज़ार
नज़्म
भाई भाई की मोहब्बत में निराले से शुकूक
निगह-ए-ग़ैर में जिस तरह अनोखे से सवाल