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नज़्म
तमाम रानाइयों के मज़हर, तमाम रंगीनियों के मंज़र
सँभल सँभल कर सिमट सिमट कर सब एक मरकज़ पर आ रहे हैं
जिगर मुरादाबादी
नज़्म
सिमट कर किस लिए नुक़्ता नहीं बनती ज़मीं कह दो
ये फैला आसमाँ उस वक़्त क्यूँ दिल को लुभाता था
मीराजी
नज़्म
ऐ कराची ये बता अब किस से मिलने आऊँगी
किस की बाँहों में सिमट कर चैन ओ सुख मैं पाऊँगी