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नज़्म
सिनान ओ गुर्ज़ ओ शमशीर ओ तबर ख़ंजर नहीं लाज़िम
बस इक एहसास लाज़िम है कि हम बुअदैन हैं दोनों
जौन एलिया
नज़्म
तोले हुए है तेग़-ओ-सिनाँ हुस्न-ए-बे-नक़ाब
नावक-फ़गन है जल्वा-ए-पिन्हान-ए-लखनऊ
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
न सुर्ख़ी-ए-लब-ए-खंजर न रंग-ए-नोक-ए-सिनाँ
न ख़ाक पर कोई धब्बा न बाम पर कोई दाग़
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
शमशीर तबर बंदूक़ सिनाँ और नश्तर तीर नहरनी है
याँ जैसी जैसी करनी है फिर वैसी वैसी भरनी है
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
सब्र वाले छा रहे हैं जब्र की अक़्लीम पर
हो गया फ़र्सूदा शमशीर-ओ-सिनाँ का इंक़लाब
ज़फ़र अली ख़ाँ
नज़्म
अर्श मलसियानी
नज़्म
जिन के हर लफ़्ज़ में नश्तर है निगाहों में सिनाँ
कार-ख़ानों में घुटे जाते हैं जिन के अरमाँ
इज़हार मलीहाबादी
नज़्म
अंदाज़ में शोख़ी में करिश्मे में अदा में
तलवार थी बर्छी थी कटारी थी सिनाँ थी
चंद्रभान कैफ़ी देहल्वी
नज़्म
कहीं नोक-ए-सिनाँ के इस्म ओ अफ़्सूँ से
लहू की बूँद में तस्लीम की किरनें जगाता है