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नज़्म
इन काली सदियों के सर से जब रात का आँचल ढलकेगा
जब दुख के बादल पिघलेंगे जब सुख का सागर छलकेगा
साहिर लुधियानवी
नज़्म
ज़मीं ने फिर नए सर से नया रख़्त-ए-सफ़र बाँधा
ख़ुशी में हर क़दम पर आफ़्ताब आँखें बिछाता है