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नज़्म
बे-तेरे क्या वहशत हम को, तुझ बिन कैसा सब्र ओ सुकूँ
तू ही अपना शहर है जानी तू ही अपना सहरा है
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
लफ़्ज़ के अंधे कुएँ में मा'नी का तारा भी आता नहीं है नज़र
लफ़्ज़ गौतम का इरफ़ाँ नहीं
करीम रूमानी
नज़्म
वो शिद्दत-ए-बयाँ हो कि हो जुरअत-ए-बयान-ए-हक़
गुस्ताख़ इतनी हो गई मेरी ज़बाँ कभी कभी
अशरफ़ बाक़री
नज़्म
कभी जब लफ़्ज़-ए-आज़ादी का सच्चा तर्जुमाँ होगा
तो फिर ये हिन्द ख़्वाबों का मिरे हिन्दोस्ताँ होगा