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नज़्म
'कुछ और कहो तो सुनता हूँ इस बाब में कुछ मत फ़रमाना'
इस बस्ती के इक कूचे में इक 'इंशा' नाम का दीवाना
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
सुनते ही ग़म को मारे छाती है उमंडी आती
पी पी की धुन को सुन कर बे-कल हैं कहती जाती
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
तुम्हारी आप-बीती भी अभी तक ना-मुकम्मल है
इसे तो नाक़िदान-ए-फ़न ने सुनते ही सराहा है
ख़लील-उर-रहमान आज़मी
नज़्म
सुते से चेहरे पर हयात रसमसाती मुस्कुराती
न जाने कब के आँसुओं की दास्ताँ लिए हुए
फ़िराक़ गोरखपुरी
नज़्म
छूत की इक बीमारी फैली एक दफ़ा उन कानों में
भूक के कीड़े सुनते हैं निकले गंदुम के दानों में
गुलज़ार
नज़्म
सुनते हैं मज़दूर से मालिक का मोहरा पिट गया
''एक जा हर्फ़-ए-वफ़ा लिक्खा था वो भी मिट गया''