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नज़्म
सत्यपाल आनंद
नज़्म
'कुछ और कहो तो सुनता हूँ इस बाब में कुछ मत फ़रमाना'
इस बस्ती के इक कूचे में इक 'इंशा' नाम का दीवाना
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
मैं सब सुनता मगर ये दिल ही दिल में सोचता रहता
मिरे अहबाब क्या जानें कि मुझ पर क्या गुज़रती है