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नज़्म
और मुझे कोई शर्मिंदगी महसूस नहीं होती
सड़कों पर ताँगे की टापों की सदा अब भी सुनती हूँ
आलिया मिर्ज़ा
नज़्म
ज़ुल्फ़-ए-ख़ूबाँ की तरह देहली की सड़कें हैं दराज़
और तांगा हाँकने वालों पे ज़ाहिर है ये राज़