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नज़्म
अक़ल्लीयत कहीं की हो तह-ए-ख़ंजर ही रहती है
हलाकत-ख़ेज़ हाथों के हज़ारों जब्र सहती है
ओवेस अहमद दौराँ
नज़्म
लो वो चाह-ए-शब से निकला पिछले-पहर पीला महताब
ज़ेहन ने खोली रुकते रुकते माज़ी की पारीना किताब