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नज़्म
उजली और पुर-नूर शबीहें रोज़ नमाज़ को आती थीं
मस्जिद के इन ताक़ों में भी क्या क्या दिया फ़रोज़ाँ था
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
काली बजरी के रोग़न में जीने वाले इस मा'सूम लहू की कौन सुनेगा
ममता बिक भी चुकी है चंद टकों में
मजीद अमजद
नज़्म
चलो ढूँडो उन्हें अपने ख़यालों अपने ख़्वाबों में
कहीं ताक़ों पे अब रक्खी हुई पिछली किताबों में
सूफ़िया अनजुम ताज
नज़्म
फ़र्श-ए-शबनम पे बिछा लाल गुलाबों की बिसात
ख़ाली ताक़ों पे सजा ज़र्द शराबों के ज़ुरूफ़
मसऊद मुनव्वर
नज़्म
बदन खंडर में पड़ी हुई है
ज़ह्न के ताक़ों में कितनी यादों की अब भी कालक जमी हुई है
सिराज फ़ैसल ख़ान
नज़्म
ढल चुकी रात बिखरने लगा तारों का ग़ुबार
लड़खड़ाने लगे ऐवानों में ख़्वाबीदा चराग़
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
ये रुपहली छाँव ये आकाश पर तारों का जाल
जैसे सूफ़ी का तसव्वुर जैसे आशिक़ का ख़याल